जरा सोचकर देखियेगा…
कभी पेडॊं की झुरमुट में, छुप जाता है ऐसे.
छोटे बच्चे की तरह मुझको रिझा रहा हो जैसे.
और कहता है,
आज कल वक्त किसके पास है,
हमसे बात करने की...
कभी आधा तो कभी पूरा मुखडा दिखाता है
और कभी छुप जाता है
एक पखवाडे के लिए...
दूर आसमान में,
अपने आप में एकलौता,
और उसके साथ, हजारों खामोश तारे...
हाँ! वही जिसे हम बचपन में
लपकने को दौडते थे
समझकर लड्डू...
जिसमें दिखती थी हमें,
वो चरखा चलाती बुढिया,
उडते हुए संता क्लाज...
कितने बहाने थे हमारे पास
उसे देखने के,
उसकी कहानियों में, खुद को पाने की
अपनी प्रेयसी को, उस जैसा बतने की
कहां खो गयी, ये सारी बातें?
क्यों करता है वो, हमसे शिकायत??
क्यों नही है वक्त हमरे पास,
हमरे बचपन के साथियों के लिए???
जरा सोचकर देखियेगा...
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