Wednesday 10 April 2013

लबों की हताशा...

सफ़हे में लिपटी है, लम्हों की बातें, 
लम्हों की बातें, सदियों की बातें।
बातें, जो पूरी हुई ही नहीं,
बातें, जो अधूरी रह गयी।
बातें, जो कह गयी अनकही,
बातें, जुबां तक, जो रह गयी।
फिर भी हमको इसपर ना यकीं है,
कि तुमने उस बात को, समझा नहीं है।
जो समझे ना थे तो, पलकें क्यों झपी थी।
पल भर को सांसे, क्यों थम सी गयी थी।।
लबों पर तबस्सुम, ठहर क्यों गयी थी।
और चूड़ियाँ, क्यों सहम सी गयी थी।।
जब मैंने समझ ली उन आँखों की भाषा,
तो कैसे इसपर यकीं मैं करूँ,
कि तुमने ना समझी, लबों की हताशा...
कि तुमने ना समझी, लबों की हताशा...

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