कभी पेडॊं की झुरमुट में, छुप जाता है ऐसे.
छोटे बच्चे की तरह मुझको रिझा रहा हो जैसे.
और कहता है,
आज कल वक्त किसके पास है,
हमसे बात करने की...
कभी आधा तो कभी पूरा मुखडा दिखाता है
और कभी छुप जाता है
एक पखवाडे के लिए...
दूर आसमान में,
अपने आप में एकलौता,
और उसके साथ, हजारों खामोश तारे...
हाँ! वही जिसे हम बचपन में
लपकने को दौडते थे
समझकर लड्डू...
जिसमें दिखती थी हमें,
वो चरखा चलाती बुढिया,
उडते हुए संता क्लाज...
कितने बहाने थे हमारे पास
उसे देखने के,
उसकी कहानियों में, खुद को पाने की
अपनी प्रेयसी को, उस जैसा बतने की
कहां खो गयी, ये सारी बातें?
क्यों करता है वो, हमसे शिकायत??
क्यों नही है वक्त हमरे पास,
हमरे बचपन के साथियों के लिए???
जरा सोचकर देखियेगा...
कभी तो अश्क की रहों में, इक मुस्कान ले के आ.
इस कन्क्रीट के जंगल में, इक इन्सान ले के आ..
ना मन्दिर ला, ना मस्जिद ला, ना गुरूद्वारे, ना गिरिजाघर.
जो ला सकता है तो सचमुच का कोई, भगवन ले के आ..
शहर से दूर शमसानों में ही जिन्दा है अब सुकूं.
शहर ला दो सुकूं का या कि फिर शमसान ले के आ..
नहीं आता है मिलने, हमसे कोई, रहते हैं तन्हा हम.
इस कॉफी के टेबल पर, कोई मेहमान ले के आ..
इस घर में भी, रिश्ते सभी परये हो गये.
घर कह सकूं, ऐसा कोई मकान ले के आ..
खत्म हो जाए दुनियां से, ये भ्रष्टाचार, ये नफरत.
ऐ मेरे ”श्वेत” जा ऐसा कोई वरदन ले के आ..
इस दौडते फिरते शहर में.
तन्हाई का मेला हूँ मैं..
इस शहर मे अकेला हूँ मैं…
कन्क्रीट का जंगल है ये.
अमानवता का संदल है ये..
इससे परे इस शहर में.
मानवता का झमेला हूँ मैं..
इस शहर मे अकेला हूँ मैं…
तन्हा चला हूँ राहों पर मैं.
खुद को बचकर स्याहों से मैं..
अन्धेरे से इस शहर में.
उगता हुआ सवेरा हूँ मै..
इस शहर मे अकेला हूँ मैं…