मैं,
अनलहक* हूँ...
सच तो यही है,
ना, मानने की बात है।
दुनियां,
इसी बात से खफा होती है,
और कभी,
इसी बात को स्वीकार करती है;
उसकी मर्जी की बात है।
मन आया,
मान गया,
वगर-ना,
ज़हर का प्याला...
कभी सर कलम...
और कभी,
सूली पर लटका दिया...
और जब उसे,
अपनी इस करतूत से शांति मिल गयी;
तो बुत बनाया,
और शुरू कर दिया,
उसे,
पूजने का ढकोसलापन।।।
*अनलहक - मैं इश्वर हूँ।
Satya vachan.. आइना दर आइना तोड़ते चल रहें हैं हम!! सत्य से बचने के लिए सत्य को तोड़ते चल रहें हैं हम...
ReplyDeleteThanks Sameer...
ReplyDeletekaash ise hum kucch godmen ko dikha paate..bahut hi badhiya...
ReplyDeleteThanks a lot Dear...
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