Monday 31 December 2012

हाय! री ये किस्मत...

ये गाना दिल्ली गैंग रेप पीड़ित दिवंगत दामिनी को श्रधान्जली है।
हाय! री ये किस्मत...


कब तक लुटेगी अस्मत, 
हाय! री ये किस्मत...
अब इक नए वक़्त का आगाज़ करना है।
अत्याचार के खिलाफ आवाज़ करना है।।

यूँ ना कोई नोचे, यूँ ना कोई दबोचे।
हममें भी एक जान है, हर कोई ऐसा सोचे।।
हवस के गलों पर तमाचा जड़ना है।
अत्याचार के खिलाफ आवाज़ करना है।। 
आवाज़ करना है, आगाज़ करना है।।

अब तय कर लिया है, हमने सबक लिया है।
सदियों से सह रहे थे, अब नहीं सहना है।।
अपनी आज़ादी का परवाज़ करना है।

अत्याचार के खिलाफ आवाज़ करना है।। 
आवाज़ करना है, आगाज़ करना है।।

Sunday 23 December 2012

मुझे मंज़िल की तलाश नहीं!!!


ये सच है,
मुझे मंज़िल की तलाश नहीं! 


क्योंकि, मंज़िलों पर पहुंचकर, 
 बैठ जाते हैं, लोग...
आराम से,
इत्मिनान से,
बेफिक्र!
जैसे, 
करने को कुछ, बचा ही ना हो।

मैं तो चाहता हूँ,
चलना, उन रास्तों पर,
जो जाती तो हो,
मंज़िल की ओर,
पर पहुंचती ना हो!!
क्योंकि, मैं नहीं चाहता,
आराम से बैठ जाना।
चाहता हूँ, भटकते रहना,
अपनी मंज़िल के लिए।।।
ताकि,
ढूँढ सकूँ,
और भी,
अनगिनत,
अनभिज्ञ रास्ते,
जो जाते हों,
मंजिल की ओर।

क्योंकि,
मेरी जिज्ञासा, सिर्फ मंज़िल पाने की नहीं,
बल्कि,
उस तक पहुँचने के,
अनगिनत रास्ते खोजने की है... 

Friday 30 November 2012

जबकि, जानता हूँ...

रात को जब, लेटता हूँ,
तो छत पर तारे दिखते हैं,
और मैं, उन्हें गिनता हूँ।
जबकि, जानता हूँ, गिन नहीं पाउँगा।।।

सुबह मेरे ऑफिस के टेबल पर,
काग़ज के फूल खिले होते हैं,
और मैं, उन्हें सूंघ लेता हूँ,
जबकि, जानता हूँ, वो नकली हैं।।।

राह में जब, कोई भिखारी दिखता है,
ज़ेब से निकाल कर चंद सिक्के,
उसकी ओर उछाल कर,
बहोत गौरवान्वित महसूस करता हूँ,
जबकि, जानता हूँ,
उस दो रूपये के सिक्के से,
उसका पेट नहीं भरेगा।।।

रोज सुबह ऑफिस जाता हूँ,
रात देर से घर आता हूँ,
बनाता हूँ, खाता हूँ, और सो जाता हूँ,
जबकि, जानता हूँ,
ये मेरी ज़िन्दगी नहीं,
फिर भी, जीता हूँ।।।

हम हमेशा, वो सब कहते हैं,
समझते हैं, और करते हैं,
जो हम नहीं चाहते।।।

और, कभी नहीं सुनते,
समझते, कहते, और करते,
जो, हमारा दिल चाहता है।।।

मेरे पेट से...

कभी-कभी, मेरे पेट से,
कुछ आवाज़ें आती हैं।
जब मैंने, किसी एक वक़्त का,
भोजन, नहीं कर पाया होता है। (किन्ही कारणों से)

तब सोचता हूँ,
ये इतना भी मजबूर नहीं,
जितना,
एक वक़्त का खाना ना खाकर,
अपने बच्चों को ज़िन्दगी देनेवाले माँ-बाप।

जितना,
कई दिनों से भूखा बैठा हुआ भिखारी।
फिर भी मेरा पेट तो, गुडुर-गुर्रररर करके,
अपनी बात कह लेता है।

पर वो लोग,
कभी अपनी व्यथा नहीं कहते,
ना किसी से,
ना अपने-आप से।।।

रोज रात...

रोज रात,
जो सितारे, आसमां पर चमकते हैं,
आ जाते हैं, मेरे कमरे में,
और चमकते हैं, छत से चिपककर,
और मैं, उन्हें टकटकी बांधे देखता हूँ।
शायद, वो भी मुझे देखते होंगे।

उनके आने का सबब,
ना तो उन्होंने मुझे बताना ज़रूरी समझा,
और, ना मैंने, जानना।

ज़रूरी था, तो बस,
उनका यूँ ही रोज, आ जाना,
और मेरा उनको, टकटकी बांधे देखना।
बिना किसी शक, और सवाल के।।।

Friday 26 October 2012

शहर में सुना है फिर दंगा हुआ है...


ईमान फिर किसी का नंगा हुआ है.
शहर में सुना है फिर दंगा हुआ है..
वो एक पत्थर, पहला जिसने चलाया है.
ईमान बस उसी का ही नंगा हुआ है..
शहर में सुना है फिर दंगा हुआ है..
फिर से गलियां देखो खूनी हुई हैं.
गोद कितने मांओं की सूनी हुई हैं..
उस इन्सान का, क्या कोई बच्चा नहीं है?
वो इन्सान क्या, किसी का बच्चा नहीं है??
हाँ, वो किसी हव्वा का ही जाया है.
वो एक पत्थर, पहला जिसने चलाया है.
ईमान बस उसी का ही नंगा हुआ है.. शहर में सुना है फिर दंगा हुआ है...
लोथड़े मांस के लटक रहे हैं.
खून किसी खिडकी से टपक रहे हैं..
आग किसी की रोज़ी को लग गयी है.
कोई बिन माँ की रोजी सिसक रही है..
हर एक कोने आप में ठिठक गये हैं.
बच्चे भी अपनी माँओं से चिपक गये हैं..
इन्सानियत का खून देखो हो रहा है.
ऊपर बैठा वो भी कितना रो रहा है..
दूर से कोई चीखता सा आ रहा है.
खूनी है, या जान अपनी बचा रहा है..
और फिर सन्नाटा सा पसर गया है.
जो चीख रहा था, क्या वो भी मर गया है??
ये सारा आलम उस शख्स का बनाया है.
वो एक पत्थर, पहला जिसने चलाया है.
ईमान बस उसी का ही नंगा हुआ है.. शहर में सुना है फिर दंगा हुआ है...
वक्त पर पोलीस क्यों नहीं आई?
क्योंकी, ये कोई ऑपरेशन मजनूं नहीं था..
नेताओं ने भी होंठ अपने बन्द रक्खे.
क्योंकि, खून से हाथ उनके भी थे रंगे..
सरकार भी चादर को ताने सो रही थी.
उनको क्या, ग़र कोई बेवा हो रही थी..
पंड़ित औ मौलवी भी थे चुपचाप बैठे.
आप ही आप में दोनों थे ऐंठे..
हमने भी, अपना आपा खो दिया था.
जो हो रहा था, हमने वो खुद को दिया था..
दोषी हम सभी हैं, जो दंगे हुए हैं.
ईमान हम सभी के ही, नंगे हुए हैं..
खून से हाथ हमसभी के ही, रंगे हुए हैं...
पर दंगे का वो सबसे बड़ा सरमाया है.
वो एक पत्थर, पहला जिसने चलाया है.
ईमान बस उसी का ही नंगा हुआ है.. शहर में सुना है फिर दंगा हुआ है...
चंद सिक्कों की हवस, और कुछ नहीं था.
हिन्दू ना मुसलमां, कोई कुछ नहीं था..
हिन्दू नहीं, जो इन्सान को इन्सां ना समझे.
मुसलमां नहीं, जो इन्सानियत को ईमां ना समझे..
आपस में लड़ाये धर्म है हैवानियत का.
प्यार ही इक धर्म है इन्सानियत का..
हम कब तलक ऐसे ही सोते रहेंगे?
भड़कावे में गैरों के, अपनों को खोते रहेंगे??
बेशर्मों से तब तलक हम नंगे होते रहेंगे?
बहकावे में जब तलक दंगे होते रहेंगे!! बहकावे में जब तलक दंगे होते रहेंगे!!!
मेरे शहर फ़ैज़ाबाद में हुए दंगे से द्रवित और दुःखित -  सुनील गुप्ता 'श्वेत'

Monday 18 June 2012

मेरे पापा....


गाँवों की पगडंडियों पर मुझे घुमाते, मेरे पापा.
चार आने की चार टाफियां खिलाते, मेरे पापा..
पकड के उँगली मुझे स्कूल ले जाते, मेरे पापा.
बचपन में ही डाक्टर, इंजीनियर बनाते, मेरे पापा..
मेरी गलतियों पर मुझे चपत लगाते, मेरे पापा.
कुछ अच्छा करने पर पीठ थपथपाते, मेरे पापा..
जब कुछ बडा हुआ गलत सही समझाते, मेरे पापा.
दुनियां के हर शय से परिचित कराते, मेरे पापा..
अब मैं बडा हो गया हूँ,
अपने पैरों पर खडा हो गया हूँ.
तो बस यही सोचता हूँ,
क्या मैं बन पाउँगा, जैसे हैं मेरे पापा?
क्या मैं अपने बच्चे को वो सब दे पाउँगा?
क्या मैं मेरे पापा की तरह अच्छा पापा बन पाउँगा??
क्या मैं बन पाउँगा,
मेरे बच्चे के लिए...
मेरे पापा....

Friday 15 June 2012

हमें, इजाजत नहीं है !!!


हाल-ए-दिल अपना, सुनाने की इजाजत नहीं है.
हमें दुःख अपना, बताने की इजाजत नहीं है..
उन्हें फुरसत नहीं है, हमपर सितम करने से.
और हमें, छटपटाने की भी इजाजत नहीं है..
वो हमें लूटें, कि मारें, या चाहे कत्ल कर दें.
सर हमें अपना उठाने की इजाजत नहीं है..
अधिकार बोलने का सुरक्षित है, अब तो संसद में.
आवाम को तो खुसफुसाने की भी इजाजत नहीं है..
फुरकत में वो आज इतना है कि, मिलने को आता नहीं.
और हमको उसके पास, जाने की भी इजाजत नहीं है..
वो मजाक कर रहे हैं, देश के भविष्य से और.
कार्टून भी हमें उनका, बनाने की इजाजत नहीं है..

Tuesday 12 June 2012

बुनियाद जिसकी खोखली हो, वो मकान क्या होगी..


जो वदों से अपने मुकर जाए, वो जुबान क्या होगी.
बुनियाद जिसकी खोखली हो, वो मकान क्या होगी..
छाया तलक ना दे सके, वो वृक्ष है किस काम का.
दो बूंद को तरसे जमीं, वो आसमान क्या होगी..
फैला हुआ असमानता का जाल हो जिस देश में.
है सोचने की बात, वहाँ का संविधान क्या होगी..
हर फिक्र छोडकर के, सो जाता है ’श्वेत’ जिस जगह.
माँ के आँचल के सिवा, कोई और जहान क्या होगी..
रावण भरे पडे हैं यहाँ, राम के मुखौटों में.
है ’श्वेत’ सोच में पडा, विधि का विधान क्या होगी..

Monday 11 June 2012

बेहतर कई आए गये...


जिन्दगी की राह में, हमसफर कई आए गये.
हम अभी तक हैं वहीं, मंजर कई आए गये.. 
एक वही आया नहीं, आने का अहद जो कर गया.
वगरना दोस्त-औ-अदूं, इधर कई आए गये..
जिन्दगी में गम का कोहराम है कुछ इस कदर.
कि रात है बस रात है, सहर कई आए गये..
हर कोई समझे है बेहतर, जाने क्यों अपने आप को.
पर सच है 'श्वेत' कि यहाँ, बेहतर कई आए गये..

Sunday 10 June 2012

सितम सह के तू जिया ना कर…


सितम सह के तू जिया ना कर.
जहर के घूँट यूं पिया ना कर..
खुद ही उठा ले शमशीर अपने हाथों में.
करे कोई हिफाजत ये इल्तेजा ना कर..
आप ना उठाई आवाज जुल्म के खिलाफ तो.
इल्जाम दूसरों पर तू किया ना कर..
सजा-ए-मौत है मन्जूर मुझे ऐ ’श्वेत’.
बद्दुआ जीने की मुझको दिया ना कर..

एक नया सा जहाँ बसायेंगे…


एक नया सा जहाँ बसायेंगे.
शामियाने नये सजायेंगे..
जहाँ खुशियों की बारिशें होंगी.
गम की ना कोई भी जगह होगी..
रात होगी तो बस सुकूं के लिये.
खिलखिलाती हुई सुबह होगी..
कोई किसी से ना नफरत करेगा.
करेगा प्यार, मोहब्बत करेगा..
जहाँ बच्चे ना भूखे सोयेंगे.
अपना बचपन कभी ना खोयेंगे..
देश का होगा, विकास जहाँ.
नेता होंगे सुभाष जैसे जहाँ..
जुल्म की दस्तां नहीं होगी.
अश्क से आँख ना पुरनम होगी..
राम-रहीम में, होगा ना कोई फर्क यहाँ.
ऐ खुदा तू भी, रह सकेगा जहाँ – २..
ना बना पाये, इस धरती को हम, स्वर्ग तो क्या.
इन्सां के रहने के, काबिल तो बना सकते हैं…
इन्सां के रहने के, काबिल तो बना सकते हैं…

जब तक आप ना बीते, तब तक हम सोते ही रह्ते हैं…

कोई नहीं कुछ करता है, इस बात पर रोते रह्ते हैं.
पर जब तक आप ना बीते, तब तक हम सोते ही रह्ते हैं..
उस पर बीत रही है, उससे हमको क्या लेना-देना.
इस पचडे में पडने से, अच्छा है यारा दूर रहना..
कर्तव्यों से मुंह चुराकर अपना, हम सबकुछ खोते रह्ते हैं…
पर जब तक आप ना बीते, तब तक हम सोते ही रह्ते हैं..
गर आग पडोस में लगी है, अपने घर तक तो आनी ही है.
रेत में मुंह छुपा लेना, ये बात तो बेमानी ही है..
क्यों अत्याचारों का बोझ, हम जीवन भर ढोते रहते हैं???
पर जब तक आप ना बीते, तब तक हम सोते ही रह्ते हैं…
इन्सां वो भी, इन्सां हम भी,  वो एक हैं, हम हैं अनेक.
क्यों ना मिलकर हम सब, बन जयें एक ताकत नेक..
नींद उडा दें उनकी, जो हमें लडाकर, चैन से सोते रहते हैं…
पर जब तक आप ना बीते, तब तक हम सोते ही रह्ते हैं…
हक नहीं है हमको उन पर, उंगलियां उठाने का.
जब उनको हम, आगे बढने का मौका देते रहते हैं..
पर जब तक आप ना बीते, तब तक हम सोते ही रह्ते हैं…

कोई फैसला तो किया करो….


अच्छा हो कि बुरा हो, कोई फैसला तो किया करो.
एक ओहदा अता हुआ  है  तुम्हें, जरा इसका तो हक अदा करो…
तुम जिस जगह पहुँच गये, हो वहाँ के नही हकदार तुम.
पर क्या कुछ ऐसा भी है, कि हो नही खुद्दार तुम..
यूं आँख मूंदे रात कब तक, अब तो कोई सुबह करो…
एक ओहदा अता हुआ  है  तुम्हें, जरा इसका तो हक अदा करो…
कोई चुप कहे तो चुप रहे, कहे बोल तो तुम बोलते हो.
कुछ तो तुम्हें भी अक्ल होगी, कुछ तो तुम भी सोचते हो..
कुछ कर नहीं सकते हो तो, कम से कम दुआ करो…
एक ओहदा अता हुआ  है तुम्हें, जरा इसका तो हक अदा करो…
इस देश के तुम बन रहे, क्यों इक नए कलंक हो.
अब तुम खुद ही फैसला करो, तुम राजा हो या रंक हो..
कि अब छोड अपनी गद्दी को, इस देश का भला करो…
एक ओहदा अता हुआ  है  तुम्हें, जरा इसका तो हक अदा करो…

Friday 8 June 2012

घोटालों के दोषी…


यूँ ही छत की मुन्डेर पर खडे मैं सोच रहा था,
हाल ही में हुए घोटालों के बारे में,
और उनसे जुडे लोगों के बारे में.
मीडिया ने बताया -
- उन नेताओं के बारे में,
जो इन घोटालों से हुए हैं,
सबसे ज्यादा लाभान्वित,
चंद महीनों की जेल हुई.
और कुछ दागी होते हुए भी,
रहे बेदाग!
- उन कम्पनीज के बारे में,
जिन्होंने उनसे करोडों कमाए,
या जिनके डूब गए करोडों,
और बन्द हो गए।
पर भूल गई मीडिया,
इन घोटालों से प्रभावित होने वाले,
- उन लोगों को,
जिनपर इनका सीधा प्रभाव पडता है,
वो हैं इनमें काम करने वाले,
आम लोग!
जो हो गए हैं आज
बेरोजगार!
और हैं मजबूर, लाचार,
करने को कुछ भी,
आत्महत्या भी??
आखिर क्यों भूल जाती है,
ये मीडिया, ये कम्पनीज,
और ये सरकार?
कि इनकी भी रोजी-रोटी
चलती है, इन्हीं बेरोजगार,
बेसहारा, लाचार और मजबूर,
आम लोगों से;
जिनके पास, आज नहीं तो कल,
इन्हें जाना ही है,
झूठे वादे, झूठे दिलासे लेकर,
इन आम लोगों की बेबसी का,
एक बार फिर फायदा उठाने.
आखिर क्यों भूल जाते हैं,
लोकतन्त्र के ये शाह,
आम लोगों को???

Thursday 7 June 2012

सच और झूठ…


सच और झूठ में,
फर्क बस इतना है.
जो हम सुनना चहते हैं,
वो है सच!
और जो कहते हैं,
वो झूठ!!
ना कुछ सच है,
और ना ही कुछ झूठ…
बस हमरी सोच है!!!

जिसने जो चाहा, वो पाया !!!


हमने इल्तजा की थी,
उनको शिकायत लगी.
हम खुश थे,
और
वो नाराज…
जिसने जो चाहा, वो पाया !!!

Wednesday 6 June 2012

जिन्दगी में वो कभी विफल नहीं होता…


जिनके हौसलों में शंका का बादल नहीं होता.
जिन्दगी में वो कभी विफल नहीं होता..
और जिनको ऐतबार ना हो अपने आप पर.
वो शख्स कभी उम्र भर सफल नहीं होता..
पत्थर नहीं उछालता कोई उन दरख्तों पर.
जिनकी शाखों पर कोई फल नहीं होता..
रात ना होती कभी इतनी गहरी, काली.
जो तुम्हारी आँखों में काजल नहीं होता..
संसद में ढूंढ रहे थे हम, एक अच्छा नाम.
पर कीचडों में शायद अब कंवल नहीं होता..
ऐ 'श्वेत' शायद तुझको कोई पहचानता नहीं.
अगर तू लिखता ग़ज़ल नहीं होता.. 

Tuesday 5 June 2012

दिल में है दर्द, तो गजल करना पडेगा...


अपने शब्दों को थोडा सरल करना पडेगा.
दिल में है दर्द, तो गजल करना पडेगा..
गर बनना है सूरज, चमकने के लिये तो.
दोस्तों अन्दर ही अन्दर, जलना पडेगा..
मन्जिलों तक पहुँचना है तो रस्तों पर.
तन्हा बहोत दूर तक, चलना पडेगा..
बदलाव कोई बडा, लाना है तो 'श्वेत'.
पहले खुद अपने आप को बदलना पडेगा..
वरिष्ठ जनों का हार, बनाने के लिये माली को.
कुछ मासूम फूलों को, मसलना पडेगा...

Monday 4 June 2012

आज हर इन्सान यहाँ, लाश बन गया है क्यों ???


आज हर इन्सान यहाँ, लाश बन गया है क्यों ?
रिश्तों की जगह पैसा, एहसास बन गया है क्यों ??
तेज रफ्तारों ने यहाँ, छीनी है कई जिन्दगियाँ.
कारों में चलने वाला, यमराज बन गया है क्यों ??
सत्यमेव-जयते, सूक्त वक्य है जहाँ का.
झूठ वहाँ का गीता-कुरान बन गया है क्यों ??
जितना बडा नेता, उतना ही बडा चोर.
हर लुटेरा इस देश का, निगेहबान बन गया है क्यों ??

इस दुनियां का सच…


हमने एक कहानी बनाई,
उसको इतनी दफे सुनाई,
कि अब हकीकत,
झूठ लगे है.
और कहानी,
लगती है सच्ची…
इस दुनियां में,
सच क्या है?
और, झूठ क्या??
जिस सच को,
दबा और कुचल दिया जाता है,
वो झूठ!
और जिस झूठ को,
बढा-चढाकर और
कहानियों में गूंथकर सुनाया जाता है,
वही होता है, इस दुनियां का,
अन्तिम और अकाट्य,
सत्य!!
दबे-कुचले होते हैं, गरीब!
और जिनकी कहानियां होती हैं,
वो होते हैं अमीर!!
इस दुनियां का,
बस इतना सच है,
ये दुनियां,
बस इतनी ही सच्ची!!!

Wednesday 30 May 2012

जनता का तो बज गया बाजा, अन्धेर नगरी, चौपट राजा…


जनता का तो बज गया बाजा,
अन्धेर नगरी, चौपट राजा..
२जी घोटाला करे ’ए राजा’,
अन्धेर नगरी, चौपट राजा..
पूछा जो उनसे, तो कहते हैं राजा,
सब करते हैं घोटाले, कोई हमको नहीं बताता..
जनता का तो बज गया बाजा, अन्धेर नगरी, चौपट राजा…
तोहमत तो हमपर ऐसे ना लगाओ,
चोर आप हमको ऐसे ना बुलाओ.
सब खाते होंगे, मैं नहीं खाता..
जनता का तो बज गया बाजा, अन्धेर नगरी, चौपट राजा…
पर राजा जी इतना तो बताओ,
जो चोर हैं, उनको तो हटाओ.
दुनियां सरी पहचाने है उनको, क्यों आपको ही वो नजर नहीं आता..
जनता का तो बज गया बाजा, अन्धेर नगरी, चौपट राजा…

कातिल तो एक ही था, पर खन्जर बदल गए.…


कातिल तो एक ही था, पर खन्जर बदल गए.
कुछ इस तरह से सारे, मन्जर बदल गए..
हमको तो मिल ही जाता, वो प्यार का मोती.
बदकिस्मती अपनी, कि समन्दर बदल गए..
गर जीतना है जीतो, दिलों को मेरे दोस्त.
वतन जीतने वाले सभी, सिकन्दर बदल गए..
सच-झूठ और सारे नियम कानून.
रिश्वत मिली तो सरे, अन्तर बदल गए..
देखकर संसद की हालत, ’श्वेत’ सोचता हूँ.
जानवर बदल गए हैं, या जंगल बदल गए..

Tuesday 29 May 2012

स्वर्ग तो ‘माँ’ की ही गोद मिले है…


मुद्दत बाद वो हमसे मिले हैं.
जाने कैसे दिल पिघले हैं..
ये दर्द ना पूछो किसने दिये हैं.
हमने तो अपने होंठ सिले हैं..
इश्क में दीवाली पर ऐ ’श्वेत’.
दीप नहीं, दिल ही तो जले हैं..
झूठ की आँखों पर पट्टी है.
पर सच के तो होंठ सिले हैं..
दोनों जहाँ जब भटके तो समझे.
स्वर्ग तो ’माँ’ की ही गोद मिले है…

Monday 28 May 2012

वर्तमान!!!


वक्त की चदर ने सब कुछ ढंक रखा है.
जैसे-जैसे,
परत-दर-परत,
ये खुलती जाती हैं..
हम भविष्य के चेहरे से,
रू-ब-रू होते जाते हैं…
और जैसे-जैसे गुजरते जाते हैं,
खो जाते हैं,
वक्त के आगोश में,
कहे-अनकहे,
सुलझे-अनसुलझे,
अनगिनत राज!!!
कुछ भी नहीं रह्ता,
संज्ञान में…
ना भविष्य,
और ना ही भूत…
ये सब वक्त का ही मायाजाल है!!
गर इसके मायाजाल से
कुछ अनछुआ है,
तो वो है,
वर्तमान!!!
जिसे हम जी सकते हैं..
महसूस कर सकते हैं…
और
बदल सकते हैं…
अपनी सोच से…..

किसी अपने की दुआओं का असर होता है…


कोई डूबता सा गर दरिया में पार होता है.
ये किसी अपने की दुआओं का असर होता है..
बस उन्ही राहों का आसान सफर होता है.
जिनको अपने पर भरोसा जो अगर होता है..
छोड हमें यहाँ, चले जाते हैं जो उस नगरी.
वहाँ रहने को क्या, उनका कोई घर होता है???…

Thursday 24 May 2012

मजा किसी को, सजा किसी को….


तू करके चोरी फंसा किसी को.
मजा किसी को, सजा किसी को..
जो गर तरक्की तुझे है करना.
दबंग बनके दबा किसी को..
CWG, 2G, आदर्श, चारा.
तू कर घोटाले, फंसा किसी को..
सफेद कपडे, दिलों में कालिख.
दिखा किसी को, छुपा किसी को..
कसाब पर कर करोडों खर्चे.
कमाई किसी की, लुटा किसी को..
ये जनता तो है ही गूंगी-बहरी.
कि चाहे जैसे, नचा किसी को..
हजारों वादे हम करके मुकरे.
ना पूरा हमने किया किसी को..
भगवान है, अब तो पैसा-पावर.
कि अब तो सजदे अता इसी को..
मँहगाई कम होगी सब्सिडी से.
कि दे किसी को, लुभा किसी को..
ये काला धन रख स्विस तिजोरी में.
कि देश अपना लुटा किसी को..
मुजरिम है इस गुनह का, मंत्रि-बेटा.
कर अन्दर लगा के दफा किसी को..
फिर ’श्वेत’ तू रह गया ना तन्हा.
कब रास आई, वफा किसी को..
तू फिर आ इस धरती पर ऐ खुदारा!
बचा किसी को, मिटा किसी को..

याद मुझे कोई आता बहोत पुराना है…

दिल से दर्द का नाता बहोत पुराना है.
याद मुझे कोई आता बहोत पुराना है..
जाने कबसे सुन रहा हूँ लोगों की,
कोई तो सुन लो मुझे भी कुछ सुनाना है..
आँखें उसकी जाने कबसे पथरा गयी,
हँसी उडाओ उसकी उसे रुलाना है..
इश्क है उनसे बात बहोत पुरानी है,
सबने सुना पर उनको भी तो सुनाना है..
लूटो, मारो, छीनो, कटो, कत्ल करो,
राम-रहीम के चक्कर भी तो लगाना है..

Wednesday 23 May 2012

जरा सोचकर देखियेगा…


कभी पेडॊं की झुरमुट में, छुप जाता है ऐसे.
छोटे बच्चे की तरह मुझको रिझा रहा हो जैसे.
और कहता है,
आज कल वक्त किसके पास है,
हमसे बात करने की...
कभी आधा तो कभी पूरा मुखडा दिखाता है
और कभी छुप जाता है
एक पखवाडे के लिए...
दूर आसमान में,
अपने आप में एकलौता,
और उसके साथ, हजारों खामोश तारे...
हाँ! वही जिसे हम बचपन में
लपकने को दौडते थे
समझकर लड्डू...
जिसमें दिखती थी हमें,
वो चरखा चलाती बुढिया,
उडते हुए संता क्लाज...
कितने बहाने थे हमारे पास
उसे देखने के,
उसकी कहानियों में, खुद को पाने की
अपनी प्रेयसी को, उस जैसा बतने की
कहां खो गयी, ये सारी बातें?
क्यों करता है वो, हमसे शिकायत??
क्यों नही है वक्त हमरे पास,
हमरे बचपन के साथियों के लिए???
जरा सोचकर देखियेगा...

Tuesday 22 May 2012

कभी तो अश्क की रहो में, इक मुस्कान ले के आ…


कभी तो अश्क की रहों में, इक मुस्कान ले के आ.
इस कन्क्रीट के जंगल में, इक इन्सान ले के आ..
ना मन्दिर ला, ना मस्जिद ला, ना गुरूद्वारे, ना गिरिजाघर.
जो ला सकता है तो सचमुच का कोई, भगवन ले के आ..
शहर से दूर शमसानों में ही जिन्दा है अब सुकूं.
शहर ला दो सुकूं का या कि फिर शमसान ले के आ..
नहीं आता है मिलने, हमसे कोई, रहते हैं तन्हा हम.
इस कॉफी के टेबल पर, कोई मेहमान ले के आ..
इस घर में भी, रिश्ते सभी परये हो गये.
घर कह सकूं, ऐसा कोई मकान ले के आ..
खत्म हो जाए दुनियां से, ये भ्रष्टाचार, ये नफरत.
ऐ मेरे ”श्वेत” जा ऐसा कोई वरदन ले के आ..

इस शहर मे अकेला हूँ मैं…


इस दौडते फिरते शहर में.
तन्हाई का मेला हूँ मैं..
इस शहर मे अकेला  हूँ मैं…
कन्क्रीट का जंगल है ये.
अमानवता का संदल है ये..
इससे परे इस शहर में.
मानवता का झमेला हूँ मैं..
इस शहर मे अकेला  हूँ मैं…
तन्हा चला हूँ राहों पर मैं.
खुद को बचकर स्याहों से मैं..
अन्धेरे से इस शहर में.
उगता हुआ सवेरा हूँ मै..
इस शहर मे अकेला  हूँ मैं…