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Wednesday, 24 February 2016

सारी बातें सुनी-सुनायीं !!

सारी बातें सुनी-सुनायीं,
किन बातों पर यकीं करें, और
कौन सी बातें, बात बनायीं !
सारी बातें सुनी-सुनायीं !!

इसने कहा कुछ, उसने सुना कुछ,
इसने किया कुछ, उसको लगा कुछ।
जिसको जैसा लगा घुमाया,
अपनी रोटी खूब पकायी !
सारी बातें सुनी-सुनायीं !!

ऐसी बातें सुनकर हमने,
उसको ही सच मान लिया।
औरों ने उकसाया हमको,
और हमने बस ठान लिया।
इसको मारा, उसको काटा,
घर-घर हमने आग लगायी !
सारी बातें सुनी-सुनायीं !!

क्या हम में अब समझ नहीं है,
क्या ख़ुद की कोई सोच नहीं।
या फिर इन्सां होने का,
अब हमको कोई गर्व नहीं।
किसी को बेवा, कोई यतीम,
हर इक आँखें खून रूलायीं !
सारी बातें सुनी-सुनायीं !!


किन बातों पर यकीं करें, और
कौन सी बातें, बात बनायीं !
सारी बातें सुनी-सुनायीं !!
Originally posted @ www.writerstorm.in

Tuesday, 14 May 2013

सभ्य समाज!!!-1

कितनी दफ़े मैं सोचता हूँ,
तेरे साथ चलूँ,
पर हर बार,
तू मुझसे आगे निकल जाता है.
पता नहीं, ये तुम्हारी आदत है,
या तुम मुझे साथ लेना नहीं चाहते,
या कुछ और,
पता नहीं…

याद है,
बचपन में तुम मेरा इन्तज़ार करते थे-
अगर मैं, पीछे रह जाऊं…
मैं आगे भी निकल जाता,
तो तुम दौड़कर मेरे पास आ जाते,
मेरे साथ चलने के लिए,
मुझे साथ लेने के लिये…

पर अब क्या हो गया है?
क्यों तुम भी आगे निकलने की होड़ में,
अपनों को भूल गए हो?
क्या अब तुम्हे रिश्तो के साथ चलना, अच्छा नहीं लगता?

क्या अब तुम भी बन गए हो,
इस सभ्य समाज का हिस्सा?
जहाँ अपने सिवाय, अपनों की क़द्र ही नहीं होती।
क्या तुम भी ???

Monday, 18 February 2013

मुस्कुराने के वजह!!!

मुस्कुराने के वजह!!!
पहले बहोत से थे,
कभी नन्ही सी तितली को देखकर
उसके पीछे भागना,
तो कभी,
खाली माचिस की डिबिया को उछालना...
कभी सन्तरे वाली टॉफी पाकर
यूँ लगता, जैसे सबकुछ तो मिल गया है.
तो कभी
अंगूर के गुच्छे पाकर!

कभी चीनीवाली वो मिठाई,
तो कभी रामनारायन चाचा के यहाँ की जलेबी...
वो कंचे, वो गिल्ली-डंडा,
वो दिवाली के दिए,
वो पाँच छोटे-छोटे पत्थर के टुकड़े,
वो कागज़ से तरह-तरह के बने खिलौने,
और ना जाने क्या-क्या!!

खुशियाँ बहोत छोटी-छोटी थीं,
पर उनसे जिस्म ही नहीं,
रूह तक मुस्कुरा उठती थी...
और यूँ लगता,
जैसे और कुछ चाहिए ही नहीं,
सब कुछ तो मिल गया है!!!

पर आज,
खुशियाँ कितनी सिमट गयी हैं,
तीन साल में मिला कोई Promotion.
दो साल में पूरा किये हुए
किसी Project के लिए Boss की बधाई.
पुरे साल भर में Achieve किया हुआ कोई Target..
और महीने की पहली तारीख को आई हुई Salary ...

और उसपर भी ये ग़म,
कि पहले सप्ताह में सब ख़तम...

शायद,
कुछ ज़्यादा पाने की ख़्वाहिश में,
जो थोड़ा पास था वो भी गंवा बैठे हैं.
आँखों में लिए फिरते हैं समन्दर,
और Plastic Smile से सब छुपा बैठे हैं..
मुस्कुराने के वजह तो कुछ भी ना थे,
बेवजह ही हम मुस्कुरा बैठे हैं...
बेवजह ही हम मुस्कुरा बैठे हैं...

Muskurane ke wajah in my voice.

Sunday, 10 February 2013

कुछ शे'र मार रहा हूँ...

"तुझे पा ना सका, ये ग़म है मुझे,
तेरा नाम मगर, मरहम है मुझे..."

"ना कर इतना गुमां, पलकों पे मेरी, चढ़ के तू ऐ अश्क,
कि चढ़ आया है नज़रों में, तो तू उतर भी सकता है..."

"ना पूछिये, है कितना असर, मेरा मुझपर,
मैं ऐसा दर्द हूँ, जो खुद पे भी बेदर्द रहा..."

"इक आरजू है, कि आरजू ना रहे,
बहोत किया है ख़स्ताहाल, आरजू ने तेरी..."

"इस रफ़्तार से चलता है, दुनियां का कारवां,
दो पल पुराने ग़म भी, ठहरते नहीं पल भर..."

"ज़ज्बात-ए-जिस्म के तजुर्बे लेकर,
आखिरश रूह की दुनियां में आना ही पड़ा..."

                                                                    ........आगे भी ज़ारी रखूँगा...

Monday, 31 December 2012

हाय! री ये किस्मत...

ये गाना दिल्ली गैंग रेप पीड़ित दिवंगत दामिनी को श्रधान्जली है।
हाय! री ये किस्मत...


कब तक लुटेगी अस्मत, 
हाय! री ये किस्मत...
अब इक नए वक़्त का आगाज़ करना है।
अत्याचार के खिलाफ आवाज़ करना है।।

यूँ ना कोई नोचे, यूँ ना कोई दबोचे।
हममें भी एक जान है, हर कोई ऐसा सोचे।।
हवस के गलों पर तमाचा जड़ना है।
अत्याचार के खिलाफ आवाज़ करना है।। 
आवाज़ करना है, आगाज़ करना है।।

अब तय कर लिया है, हमने सबक लिया है।
सदियों से सह रहे थे, अब नहीं सहना है।।
अपनी आज़ादी का परवाज़ करना है।

अत्याचार के खिलाफ आवाज़ करना है।। 
आवाज़ करना है, आगाज़ करना है।।

Friday, 30 November 2012

जबकि, जानता हूँ...

रात को जब, लेटता हूँ,
तो छत पर तारे दिखते हैं,
और मैं, उन्हें गिनता हूँ।
जबकि, जानता हूँ, गिन नहीं पाउँगा।।।

सुबह मेरे ऑफिस के टेबल पर,
काग़ज के फूल खिले होते हैं,
और मैं, उन्हें सूंघ लेता हूँ,
जबकि, जानता हूँ, वो नकली हैं।।।

राह में जब, कोई भिखारी दिखता है,
ज़ेब से निकाल कर चंद सिक्के,
उसकी ओर उछाल कर,
बहोत गौरवान्वित महसूस करता हूँ,
जबकि, जानता हूँ,
उस दो रूपये के सिक्के से,
उसका पेट नहीं भरेगा।।।

रोज सुबह ऑफिस जाता हूँ,
रात देर से घर आता हूँ,
बनाता हूँ, खाता हूँ, और सो जाता हूँ,
जबकि, जानता हूँ,
ये मेरी ज़िन्दगी नहीं,
फिर भी, जीता हूँ।।।

हम हमेशा, वो सब कहते हैं,
समझते हैं, और करते हैं,
जो हम नहीं चाहते।।।

और, कभी नहीं सुनते,
समझते, कहते, और करते,
जो, हमारा दिल चाहता है।।।

मेरे पेट से...

कभी-कभी, मेरे पेट से,
कुछ आवाज़ें आती हैं।
जब मैंने, किसी एक वक़्त का,
भोजन, नहीं कर पाया होता है। (किन्ही कारणों से)

तब सोचता हूँ,
ये इतना भी मजबूर नहीं,
जितना,
एक वक़्त का खाना ना खाकर,
अपने बच्चों को ज़िन्दगी देनेवाले माँ-बाप।

जितना,
कई दिनों से भूखा बैठा हुआ भिखारी।
फिर भी मेरा पेट तो, गुडुर-गुर्रररर करके,
अपनी बात कह लेता है।

पर वो लोग,
कभी अपनी व्यथा नहीं कहते,
ना किसी से,
ना अपने-आप से।।।

Friday, 26 October 2012

शहर में सुना है फिर दंगा हुआ है...


ईमान फिर किसी का नंगा हुआ है.
शहर में सुना है फिर दंगा हुआ है..
वो एक पत्थर, पहला जिसने चलाया है.
ईमान बस उसी का ही नंगा हुआ है..
शहर में सुना है फिर दंगा हुआ है..
फिर से गलियां देखो खूनी हुई हैं.
गोद कितने मांओं की सूनी हुई हैं..
उस इन्सान का, क्या कोई बच्चा नहीं है?
वो इन्सान क्या, किसी का बच्चा नहीं है??
हाँ, वो किसी हव्वा का ही जाया है.
वो एक पत्थर, पहला जिसने चलाया है.
ईमान बस उसी का ही नंगा हुआ है.. शहर में सुना है फिर दंगा हुआ है...
लोथड़े मांस के लटक रहे हैं.
खून किसी खिडकी से टपक रहे हैं..
आग किसी की रोज़ी को लग गयी है.
कोई बिन माँ की रोजी सिसक रही है..
हर एक कोने आप में ठिठक गये हैं.
बच्चे भी अपनी माँओं से चिपक गये हैं..
इन्सानियत का खून देखो हो रहा है.
ऊपर बैठा वो भी कितना रो रहा है..
दूर से कोई चीखता सा आ रहा है.
खूनी है, या जान अपनी बचा रहा है..
और फिर सन्नाटा सा पसर गया है.
जो चीख रहा था, क्या वो भी मर गया है??
ये सारा आलम उस शख्स का बनाया है.
वो एक पत्थर, पहला जिसने चलाया है.
ईमान बस उसी का ही नंगा हुआ है.. शहर में सुना है फिर दंगा हुआ है...
वक्त पर पोलीस क्यों नहीं आई?
क्योंकी, ये कोई ऑपरेशन मजनूं नहीं था..
नेताओं ने भी होंठ अपने बन्द रक्खे.
क्योंकि, खून से हाथ उनके भी थे रंगे..
सरकार भी चादर को ताने सो रही थी.
उनको क्या, ग़र कोई बेवा हो रही थी..
पंड़ित औ मौलवी भी थे चुपचाप बैठे.
आप ही आप में दोनों थे ऐंठे..
हमने भी, अपना आपा खो दिया था.
जो हो रहा था, हमने वो खुद को दिया था..
दोषी हम सभी हैं, जो दंगे हुए हैं.
ईमान हम सभी के ही, नंगे हुए हैं..
खून से हाथ हमसभी के ही, रंगे हुए हैं...
पर दंगे का वो सबसे बड़ा सरमाया है.
वो एक पत्थर, पहला जिसने चलाया है.
ईमान बस उसी का ही नंगा हुआ है.. शहर में सुना है फिर दंगा हुआ है...
चंद सिक्कों की हवस, और कुछ नहीं था.
हिन्दू ना मुसलमां, कोई कुछ नहीं था..
हिन्दू नहीं, जो इन्सान को इन्सां ना समझे.
मुसलमां नहीं, जो इन्सानियत को ईमां ना समझे..
आपस में लड़ाये धर्म है हैवानियत का.
प्यार ही इक धर्म है इन्सानियत का..
हम कब तलक ऐसे ही सोते रहेंगे?
भड़कावे में गैरों के, अपनों को खोते रहेंगे??
बेशर्मों से तब तलक हम नंगे होते रहेंगे?
बहकावे में जब तलक दंगे होते रहेंगे!! बहकावे में जब तलक दंगे होते रहेंगे!!!
मेरे शहर फ़ैज़ाबाद में हुए दंगे से द्रवित और दुःखित -  सुनील गुप्ता 'श्वेत'