सोचो गर ऐसा होता...
रात पर भी सुबह की किरणों का पहरा होता,
सोचो फिर कैसा होता, सोचो गर ऐसा होता...
एक कोने साँझ होती, एक कोने रात होती।
गले मिलते धुप-छाँव, एक शहर और एक गाँव,
एक इधर, एक उधर पाँव...
सोचो फिर कैसा होता, सोचो गर ऐसा होता...
चलते हम बादल के ऊपर, ज़मीं पर हम तैरते,
लाख सरहद हमको रोके, हम कहीं न ठहरते।
फैला के पंख, उड़ जाते, हम अगर सागर में तो,
सोचो फिर कैसा होता, सोचो गर ऐसा होता...
खुशियाँ ही खुशियाँ होतीं, ग़म में भी हँसते हम,
आंसुओं को बना मोती, जेब में गर रखते हम,
सोचो फिर कैसा होता, सोचो गर ऐसा होता...
अंधों को भी रंग दिखते, बहरे भी सुनते ग़ज़ल,
तारे जमीं पर टिमटिमाते, बादलों पर खिलते कँवल.
सोचो फिर कैसा होता, सोचो गर ऐसा होता...
स्वर्ग पर इंसान रहते, और ख़ुदा ज़मीन पर...
सोचो फिर कैसा होता,
सोचो गर ऐसा होता...
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