कितनी दफ़े मैं सोचता हूँ,
तेरे साथ चलूँ,
पर हर बार,
तू मुझसे आगे निकल जाता है.
पता नहीं, ये तुम्हारी आदत है,
या तुम मुझे साथ लेना नहीं चाहते,
या कुछ और,
पता नहीं…
याद है,
बचपन में तुम मेरा इन्तज़ार करते थे-
अगर मैं, पीछे रह जाऊं…
मैं आगे भी निकल जाता,
तो तुम दौड़कर मेरे पास आ जाते,
मेरे साथ चलने के लिए,
मुझे साथ लेने के लिये…
पर अब क्या हो गया है?
क्यों तुम भी आगे निकलने की होड़ में,
अपनों को भूल गए हो?
क्या अब तुम्हे रिश्तो के साथ चलना, अच्छा नहीं लगता?
क्या अब तुम भी बन गए हो,
इस सभ्य समाज का हिस्सा?
जहाँ अपने सिवाय, अपनों की क़द्र ही नहीं होती।
क्या तुम भी ???
तेरे साथ चलूँ,
पर हर बार,
तू मुझसे आगे निकल जाता है.
पता नहीं, ये तुम्हारी आदत है,
या तुम मुझे साथ लेना नहीं चाहते,
या कुछ और,
पता नहीं…
याद है,
बचपन में तुम मेरा इन्तज़ार करते थे-
अगर मैं, पीछे रह जाऊं…
मैं आगे भी निकल जाता,
तो तुम दौड़कर मेरे पास आ जाते,
मेरे साथ चलने के लिए,
मुझे साथ लेने के लिये…
पर अब क्या हो गया है?
क्यों तुम भी आगे निकलने की होड़ में,
अपनों को भूल गए हो?
क्या अब तुम्हे रिश्तो के साथ चलना, अच्छा नहीं लगता?
क्या अब तुम भी बन गए हो,
इस सभ्य समाज का हिस्सा?
जहाँ अपने सिवाय, अपनों की क़द्र ही नहीं होती।
क्या तुम भी ???