कभी तो अश्क की रहो में, इक मुस्कान ले के आ…
कभी तो अश्क की रहों में, इक मुस्कान ले के आ.
इस कन्क्रीट के जंगल में, इक इन्सान ले के आ..
ना मन्दिर ला, ना मस्जिद ला, ना गुरूद्वारे, ना गिरिजाघर.
जो ला सकता है तो सचमुच का कोई, भगवन ले के आ..
शहर से दूर शमसानों में ही जिन्दा है अब सुकूं.
शहर ला दो सुकूं का या कि फिर शमसान ले के आ..
नहीं आता है मिलने, हमसे कोई, रहते हैं तन्हा हम.
इस कॉफी के टेबल पर, कोई मेहमान ले के आ..
इस घर में भी, रिश्ते सभी परये हो गये.
घर कह सकूं, ऐसा कोई मकान ले के आ..
खत्म हो जाए दुनियां से, ये भ्रष्टाचार, ये नफरत.
ऐ मेरे ”श्वेत” जा ऐसा कोई वरदन ले के आ..
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